वो उम्मत जो एक थी, जो एक कलिमा पढ़ती थी,
जो एक क़िबले की तरफ़ झुकती थी,
जो एक रसूल ﷺ पर ईमान रखती थी —
आज उसी उम्मत के दिलों में इतनी दूरियाँ क्यों हैं?
किसने हमारे सीने में ये नफ़रत का ज़हर घोला?
कब हमने अपने दिलों से मोहब्बत के दिए बुझा दिए?
और कब हमने अपने ही भाइयों को काफ़िर कह देना आसान समझ लिया?
जब मस्जिदों के मीनार इल्म और रहमत की जगह नफ़रत और तक़सीम के पैग़ाम देने लगें,
जब मिम्बर पर बैठा आलिम दूसरे मुसलमान को नीचा दिखाने लगे,
जब अज़ान की आवाज़ें भी फ़िरक़ों में बँट जाएँ —
तो समझ लो कि दुश्मन को कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती।
हम खुद अपनी जड़ों को काट रहे होते हैं,
अपने बच्चों के भविष्य को खंडहर बना रहे होते हैं।
आज हम सोचते हैं कि हमारी लड़ाई अक़ीदे की है,
मगर सच्चाई यह है कि हमारी लड़ाई मफ़ादात (स्वार्थ) की है।
जहाँ दिलों में इल्म की जगह अहम (अहंकार) आ जाए,
जहाँ दीन की जगह दौलत और शोहरत हावी हो जाए,
वहाँ इख़्तिलाफ़ (मतभेद) दुश्मनी में बदल जाता है।
और फिर इस आग में झुलसता है —
वो आम मुसलमान,
जिसे न सियासत समझ आती है, न फ़तवों की गहराई,
वो सिर्फ़ शांति चाहता है, मोहब्बत चाहता है,
लेकिन उसे मिलती है — तंगनज़री और नफ़रत।
आज वक्त है कि हम ठहरें,
अपने दिलों में झाँकें,
और देखें कि हमने अपने रसूल ﷺ की कौन सी शिक्षा को निभाया?
उन्होंने तो कहा था:
“मुसलमान वह है, जिससे दूसरे मुसलमान उसकी ज़बान और हाथ से महफ़ूज़ रहें।”
मगर आज?
हमारी ज़बान से ज़ख्म लगते हैं,
हमारे हाथों से दीवारें बनती हैं,
हमारे फ़ैसलों से रिश्ते टूटते हैं।
असली सुधार (इस्लाह) तब आएगी जब हम सुनना सीखेंगे,
समझना सीखेंगे,
और एक-दूसरे को गिराने के बजाय उठाने लगेंगे।
दुनिया की बादशाही, ताक़त, शोहरत — सब फ़ानी हैं।
असली दौलत तो वो है जो दिल में बसती है —
नर्मी, रहमदिली, और इंसानियत।
अगर तुम किसी के ज़ख्म पर मरहम रख सको,
अगर तुम किसी के आँसू पोंछ सको,
अगर तुम किसी को बिना पूछे माफ़ कर सको —
तो समझ लो, तुमने दुनिया की सबसे बड़ी जीत हासिल कर ली है।
क्योंकि जो नफ़रतें दिलों को बाँट देती हैं,
वही मोहब्बतें क़ियामत तक याद रखी जाती हैं।
आओ, अपने दिलों से नफ़रत निकालें,
मस्जिदों से तंगनज़री मिटाएँ,
और इस उम्मत को फिर से रहमत और इल्म का पैग़ाम बनाएँ।
क्योंकि उम्मत की जान मोहब्बत में है — नफ़रत में नहीं।
इल्तिमास-ए-दुआ 🤲
सैयद रिज़वान मुस्तफ़ा