21 साल की ख़ामोशी से लेकर 1200 साल की ग़ैबत तक — क़ौम की गद्दारी का काला इतिहास! आज भी वही कहानी: गद्दारों का जलवा, दावत,शरीफ़ों की ख़ामोशी चर्चा बन गई

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✒️ सैयद रिज़वान मुस्तफ़ा 


आज का मुस्लिम समाज, मस्जिदों और इमामबाड़ों की रोशनियों में भी अंधेरे में डूबा हुआ दिखाई देता है। जिस क़ौम को अली अ.स. जैसा इमाम मिला, जिसने खैबर को उखाड़ फेंका, जिसने हर जालिम की गर्दन झुका दी, वही क़ौम 21 साल तक अपने असली इमाम को चुप बैठा कर तमाशा देखती रही।
और आज वही क़ौम 1200 साल से अपने इमाम-ए-जमाना अज्ज. के इंतज़ार में रो रही है — लेकिन बदलने को तैयार नहीं।

इतिहास के सीने में दबी चीख़

जब क़ौम ने वफ़ादारी छोड़ दी, जब कुर्सी और फायदा ईमान से बड़ा हो गया,
जब लै-मार, दलाल, चापलूस, जाहिल और दुनियादार लोग हावी हो गए,
तो इमाम अली अ.स. ने तलवार नहीं उठाई— ख़ामोशी उठा ली।

उन्होंने कहा:

“अगर मेरे सिर्फ़ 40 सच्चे साथी होते, मैं खामोश न बैठता।”

यानी तलवार कमजोर नहीं थी, क़ौम कमजोर थी।

ग़ैबत-ए-कुबरा — सज़ा या इम्तेहान?

आज इमाम-ए-जमाना अज्ज. ग़ैबत में क्यों हैं?
क्योंकि वही गद्दारी, वही स्वार्थ, वही धोखा आज भी जारी है।

उस दौर में आज के दौर में
हक़ के इमाम अकेले छोड़ दिए गए सच्चे और ईमानदार उलेमा अकेले छोड़ दिए गए
दुनिया-परस्ती ने ईमान को कुचल दिया पैसा, शोहरत और कुर्सी दीन पर हावी
गद्दार और धोखेबाज़ हावी दलाल, ठेकेदार, मस्जिद-मिंबर व्यापारी
हक़ पर चुप्पी चुप्पी अब ताने बन गई

आज के उलेमा — समाज का आईना

आज सोशल मीडिया, मिंबर और सियासत पर ऐसे लोगों का कब्ज़ा है:

  • जिन्हें दीन का इल्म नहीं, मगर माइक चाहिए
  • जिनके लिए मिंबर व्यापार है, दीन ब्रांडिंग है
  • जो मस्जिद और वक़्फ़ की जमीनें बेचते हैं
  • जो विभागों और नेताओं के दलाल बन चुके हैं
  • जो जालिम के साथ खड़े हैं और मजलूम को अकेला छोड़ते हैं

और दूसरी तरफ़—
शरीफ़, नेक, अल्लाह वाले उलेमा और बुद्धिजीवी खामोश बैठे हैं,
क्योंकि:

  • बोलेंगे तो बदनाम कर दिया जाएगा
  • सच्चाई कहेंगे तो गद्दार, एजेंट, आतंकवादी का टैग मिलेगा
  • सच्चाई की कीमत जान की है

यही खामोशी आज सवाल बन चुकी है — और चर्चा का सबसे बड़ा विषय।

आज की सियासत — इमाम का इंतज़ार या खुदगर्ज़ी का तमाशा?

आज क़ौम मस्जिदों और इमामबाड़ों में रो-रोकर कहती है:

"या साहिब-उज्ज़मान! अजलअलाहु फ़राजहुम — ज़हूर कीजिए"

लेकिन सवाल:

  • क्या ये क़ौम ज़हूर के काबिल है?
  • क्या ये क़ौम सच और हक़ की कीमत चुकाने के लिए तैयार है?
  • क्या ये क़ौम तंगदिली, हसद, नफ़रत, गाली, और फित्नों से निकल चुकी है?
  • क्या ये क़ौम गद्दारों को पहचानने की हिम्मत रखती है?

सच्चाई बहुत कड़वी है— अगर ज़हूर आज हो जाए, लोग उन्हीं दलालों के पीछे भागेंगे जिनके आगे आज झुके हुए हैं।

क़ौम का काला सच — खुलकर सामने

☑️ वक़्फ़ की जमीनें लूटी जा रही हैं
☑️ मस्जिदें और इमामबाड़े ठेकेदारों और दलालों के कब्ज़े में
☑️ दीन के नाम पर धंधा
☑️ सोशल मीडिया पर गाली बाज़ी और फित्ना
☑️ मजलूमों की आवाज को दबा देना
☑️ सच्चे इमाम और उलेमा का अपमान

और फिर भी: क़ौम उम्मीद कर रही है कि इमाम आएंगे और सब ठीक कर देंगे — बिना बदले!

जागो और पहचानो

  • अब वक्त है गद्दारों को बेनक़ाब करने का
  • अब वक्त है दीन-फ़रोश उलेमा से दूरी बनाने का
  • अब वक्त है शरीफ़ उलेमा और सच्ची आवाज़ों के साथ खड़े होने का
  • अब वक्त है इमाम के इंतज़ार को अमल में बदलने का

इमाम-ए-जमाना अज्ज. तलवार लेकर नहीं आएंगे —
पहले वो क़ौम तलाश करेंगे जो हक़ के लिए खड़ी हो।

दुआ

खुदा हमें उन चालीस में शामिल कर दे —
जिनकी तलाश में अली अ.स. ने 21 साल खामोशी में गुज़ारे
और जिनके इंतज़ार में इमाम-ए-जमाना अज्ज. ग़ैबत में हैं।

आमीन

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