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नगराम, लखनऊ: नगराम की सरज़मीं हमेशा से अकीदत और अजादारी की मिसाल रही है। जो बुजुर्गों की रूह का सम्मान करते हैं, उनमें से एक नाम मोमेनीन-ए-नगराम का भी है। इसी अज्म और एहतराम के साथ आज इमामबाड़ा वजाहत हुसैन रिज़वी (सैयद वाड़ा) में सालाना मजलिस-ए-अज़ा का पुरसोज़ आयोजन हुआ, जिसमें मरहूमीन की रूहों को इसाल-ए-सवाब अता करने के लिए मोमेनीन ने अश्कों के नजराने पेश किए।
हुज्जतुल इस्लाम मौलाना अरशद हुसैन मूसीवी का असरदार खिताब
इस ग़मगीन महफ़िल में हुज्जतुल इस्लाम आली जनाब मौलाना सैयद अरशद हुसैन मूसीवी साहब ने कर्बला के पैग़ाम को बयान करते हुए कहा,
"मजलिस-ए-हुसैन सिर्फ ग़म का नाम नहीं, बल्कि एक तहरीक है, जो इंसान को जुल्म के खिलाफ खड़े होने का जज़्बा देती है।"
उन्होंने कहा कि हुसैनियत न कभी झुकी थी, न झुकेगी। कर्बला सिर्फ एक तारीखी वाक़िया नहीं, बल्कि यह बताता है कि जब जुल्म अपने चरम पर हो, तब भी हक़ का दिया बुझाया नहीं जा सकता।
मौलाना ने मजलिस-ए-अज़ा की अहमियत पर बात करते हुए कहा,
"यह सिर्फ अज़ादारी नहीं, बल्कि बुजुर्गों की अमानत है, जिसे हर मोमिन अपने दिल में संभाल कर रखता है।"
जब सोज़ख्वानी और नव्हों से भर आया माहौल
मजलिस के दौरान मीर गुलाब ने जब सोज़ख्वानी की, तो हर दिल पर अजीब कैफियत तारी हो गई। आफताब नगरामी,साहिल और शावेज़ ने जब पेशख्वानी और नव्हा पढ़ा, तो पूरा माहौल करबला के ग़म में डूब गया। ऐसा महसूस हुआ जैसे हर दीवार, हर कोना "या हुसैन" की सदा से गूंज रहा हो।
बुजुर्गों की याद में उठे हाथ, हर आंख हुई नम
मोमेनीन-ए-नगराम ने इस मौके पर अपने मरहूम बुजुर्गों को याद किया और उनकी रूहों की शांति के लिए फातिहा पढ़ी। जो चले गए, उनकी यादें तो हमारे दरमियान हैं, लेकिन मजलिसों के ये अश्क उनकी रूहों को राहत पहुंचाने का सबसे बड़ा जरिया हैं।
मजलिस के आखिर में सलाम-ए-आखिर के साथ मातम हुआ, जिसमें मोमेनीन ने ग़म-ए-हुसैन में डूबकर अपनी मोहब्बत और वफादारी का इज़हार किया।
नगराम की मिट्टी में हमेशा रहेगी हुसैनी मोहब्बत की खुशबू
नगराम के मोमेनीन ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वे अपने बुजुर्गों की रूह का सम्मान करना जानते हैं और हुसैनी पैग़ाम को अपने दिलों में संजोकर रखते हैं।
यह मजलिस खत्म तो हो गई, लेकिन कर्बला का ग़म और हुसैनी मोहब्बत नगराम की फिज़ाओं में हमेशा जिंदा रहेगी… या हुसैन!