✍️ सैयद रिज़वान मुस्तफा रिज़वी
जिस शख्स ने ताज़िंदगी मिंबर को ज़िम्मेदारी समझकर निभाया, जिसने पूरी दुनिया में लखनऊ और अजादरी की पहचान बनाई, जिसने हिंदुस्तान की ज़मीं पर मिम्बर और मजलिस को एक अज़ीम मक़ाम दिया—उसी खतीब ए अकबर मौलाना मिर्ज़ा मोहम्मद अतहर साहब क़िब्ला मरहूम की बरसी अब तमाशा बनती जा रही है।
क्या हम भूल गए उनकी वसीयत? खुले आसमान के नीचे, जन्नतुल बक़ी की तर्ज़ पर अपनी क़ब्र की वसीयत करने वाला ये अज़ीम शख्स रूहानियत का ऐसा अलामत था जो सिर्फ लफ़्ज़ों से नहीं, अपने अमल और अख़लाक से भी अकीदतमंदों के दिलों पर हुकूमत करता था।
लेकिन अफसोस... आज उनकी सालाना बरसी में जो हो रहा है, वो उनकी अज़मत के साथ सरासर बेज़्ती है।
पिछले साल पाकिस्तान से बुलाए गए मौलाना अल्लामा शहंशाह हुसैन साहब ने जब बरसी को खिताब किया, तो लोगों ने उसे शो बना दिया। मुंबई से ट्रेनें भर कर भीड़ आई, लेकिन रूहानियत गायब रही।और इस साल… एक तथाकथित मौलाना असद यावर—जिनकी पहचान विवादों, बिहारी जमींदारी और मख़सूस तबक़ों की चापलूसी से जुड़ी हुई है—को सालाना मजलिस का खिताब सौंप दिया गया।
क्यों? आखिर क्यों? क्या खतीब-ए-अकबर की बरसी कोई इवेंट बन गई है? क्या ये कोई टिकटेड शो है जिसमें पॉपुलरिटी के आधार पर मौलाना तय होंगे?
जहां कभी मजमा रूहों को जकड़ लेता था, वहां अब कुर्सियां खाली हैं। लोग अफसोस करते हुए लौटते हैं कि "मौलाना अतहर साहब की मजलिस में वो बात ही नहीं रही..."
कब्र खुले आसमान तले है, और बरसी पर्दे और लाइटिंग की चकाचौंध में गुम है।
क्या यही उनका ख्वाब था? क्या उनकी वसीयत की यही ताबीर थी?
जनाज़ा भी सियासत के साए में... हम ये भी नहीं भूले जब उनके जनाज़े को कुछ वक़्त इसलिए रोका गया कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव आ रहे हैं। उस वक़्त हजारों मोमिनीन की आँखें अश्कबार थीं, लेकिन रूहानी रवायतों को सियासी तवज्जो के पीछे छोड़ दिया गया।
क्या इस्लाम और अहलेबैत की मोहब्बत इतनी कमतर हो गई कि अब दिखावे के लिए उसे कुर्बान किया गया था?
हमारे आलिमों की ब्रांडिंग कब तक बिकेगी? कभी उनकी तस्वीर, कभी उनका नाम, कभी उनकी मजलिसों की रिकार्डिंग... हर चीज़ को यूँ पेश किया जाता है जैसे उनका वजूद बस एक प्रचार सामग्री हो।
क्या ये रवैया मौलाना अतहर साहब की तौहीन नहीं?
हमें सोचना होगा:
क्या मजलिस सिर्फ भीड़ और कैमरों का नाम है?
क्या बरसी किसी लायक मौलाना की अकीदतमंदी का इम्तिहान है या पॉपुलरिटी का?
क्या हमने बरसी को इवेंट मैनेजमेंट का हिस्सा बना दिया है?
अगर हमने खतीब-ए-अकबर की अज़मत को सिर्फ नाम और रस्म तक महदूद कर दिया, तो समझ लीजिए, हमारी नस्लें वो रूहानियत कभी महसूस नहीं कर पाएंगी, जो उनकी मजलिसों में बहती थी।
ख़तरा सिर्फ मौलाना अतहर की याददाश्त को खोने का नहीं, बल्के पूरे शिया मसलक की इज़्ज़त और मजलिस की रूह को खोने का है।
दीन की बुनियाद अहलेबैत की मोहब्बत पर है, न कि सियासत या सोशल मीडिया फॉलोअर्स पर।
अगर हमने अब भी आंखें न खोलीं, तो आने वाला वक़्त हमसे हमारे वुजूद का हिसाब मांगेगा।
खतीब-ए-अकबर को सच्ची अकीदत यही होगी कि उनकी मजलिस, उनकी वसीयत और उनके मिशन को दुनियावी हवसों से बचाकर पाक और रूहानी बनाए रखें।