📖 इल्म और आग़ाज़ का सफ़र:
लखनऊ विश्वविद्यालय से शिक्षा हासिल कर आपने न सिर्फ इल्म के ज़रिए खुद को सँवारा, बल्कि इल्म को इंसानियत की खिदमत का ज़रिया बना लिया।
फिर जब लखनऊ से बाराबंकी आए — तो यक़ीनन, बाराबंकी को मोहम्मद अतहर साहब जैसा शख्स नसीब हो गया।
🏛 नगर पालिका परिषद में सेवा नहीं, इबादत की:
नगर पालिका परिषद, बाराबंकी में बतौर कर्मी आपने सिर्फ काम नहीं किया — बल्कि इसे ख़िदमत-ए-खल्क़ का जरिया बना लिया।
हर फाइल, हर काम, हर फरियाद को आपने इख़लास और अदब से सुना और हल किया।
लोगों ने कभी उन्हें ऊँचे पद से नहीं, बल्कि बड़े दिल और ऊँचे अख़लाक़ से पहचाना।
🤝 करबला सिविल लाइंस की पहली कमेटी के रहनुमा:
आपको ये भी शर्फ़ हासिल रहा कि आप करबला सिविल लाइंस, बाराबंकी की पहली कमेटी के सदस्य रहे।
यह कोई साधारण ओहदा नहीं था — यह क़ौम के एतमाद और समाज की उम्मीद का आइना था।
जब भी क़ौमी मसले बिगड़ने को होते, आप सुलह, शफ़क़त और समझदारी के साथ फ़ैसला कराने वाले शख्स माने जाते थे।
आपकी बात में वज़न और चेहरे पर ऐसी नर्मी थी कि सख़्त से सख़्त दिल भी पिघल जाता।
💬 तहलका टुडे के संपादक सैयद रिज़वान मुस्तफा की जुबानी:
"मरहूम मोहम्मद अतहर साहब से मेरी कई मुलाक़ातें रहीं।
वो जब भी मिलते, एक सलीक़ा, एक खामोश मोहब्बत और एक इख़लास दिल को छू जाता।
उनका अंदाज़ ऐसा था कि सामने वाला झुक कर सुनना चाहता। उन्होंने कभी हौसला तोड़ा नहीं — सिर्फ बढ़ाया। ऐसे लोग कम होते हैं, और जब जाते हैं तो शहर की रूह सुनी हो जाती है।"
🧬 वारिस और विरासत:
उनकी यादें आज भी उनके भांजे आमिर रज़ा, और बेटों हसनैन अतहर (सिविल इंजीनियर) व अली अतहर (MBA प्रोफेशनल) के ज़रिए ज़िंदा हैं।
यह बच्चे नहीं — उनके अख़लाक़ की तर्जुमानी करने वाले फरज़ंद हैं।
इनसे मिलना ऐसा है जैसे फिर से मोहम्मद अतहर साहब से मिलने जैसा हो — वही नरमी, वही इज़्ज़त, वही तहज़ीब।
🕌 रूहानी रिश्ता और इल्मी विरासत:
एक और अहम पहलू यह है कि आप बाराबंकी की मुमताज़ शख्सियत, ख़तीबे करबला मरहूम आरिफ रज़ा मजलिसी साहब के साले थे।
यह रिश्ता सिर्फ रिश्तेदारी का नहीं, बल्कि इल्म, मजहब और अदब के मुआन का संगम था।
यह दोनों हस्तियाँ बाराबंकी की अदबी रूह का हिस्सा थीं।
🕊️ सुराए फ़ातिहा की इल्तिजा:
हम तमाम अज़ीज़ व अहबाब से मरहूम मोहम्मद अतहर साहब की मग़फ़िरत के लिए सुराए फ़ातिहा की दरख्वास्त करते हैं।
"या रब! उन्हें जन्नतुल फिरदौस में अज़ीम मक़ाम अता फरमा, उनकी बरकत से हमारे शहर में तहज़ीब, इंसानियत और मोहब्बत क़ायम रहे। आमीन।"
🔖 याद में कुछ अल्फ़ाज़:
"वो जिनकी मौजूदगी से गली महकती थी,
अब उनके नाम से महफ़िल सजती है।
वो चले गए तो शहर ने अपना साया खो दिया,
मगर उनकी याद ने दिलों को रोशन कर दिया।
मरहूम मोहम्मद अतहर साहब ना सिर्फ एक नाम थे, बल्कि वो बाराबंकी की तहज़ीब की पहचान थे — और उनकी बाते उनका अंदाज चर्चा में रहेंगा।
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