लखनऊ के हुसैनाबाद – एक ऐसी जगह, जहां इतिहास की गूंज आज भी हवाओं में तैरती है। शाम ढलते ही घंटाघर के आस-पास फूड कोर्ट पर रौनक जमने लगती है। लक्जरी गाड़ियों की कतारें, चमचमाते पहिए, रईसों की चकाचौंध से भरी भीड़। कोई पिज़्ज़ा खा रहा है, कोई महंगे कॉन्टिनेंटल खाने का स्वाद ले रहा है। इत्र और परफ्यूम की महक हवा में घुल रही है।
लेकिन इसी चमक के बीच, फूटपाथ के किनारे, झुकी हुई आँखों और फटे कपड़ों में लिपटी मासूमियत खड़ी है – भूख से तड़पते बच्चों का झुंड। उनके सूखे होंठों पर पपड़ी जमी है, गालों पर धूल की परतें और आँखों में सिर्फ एक सवाल – "क्या आज खाना मिलेगा?"
वो ठंडी सड़क के किनारे खड़े होकर अमीरों की प्लेटों की ओर टकटकी लगाए देख रहे हैं। जब कोई प्लेट में बचा खाना फेंक देता है, तो उनकी आँखें चमक उठती हैं – शायद अब कुछ खाने को मिल जाए। लेकिन जैसे ही हाथ बढ़ाते हैं, झिड़कियाँ उनके हिस्से आ जाती हैं।
"चल हट! भीख मांगता है... भाग यहां से!"
ये शब्द उनके मासूम दिल को चीर देते हैं। वो सहमकर पीछे हट जाते हैं, जैसे उन्होंने कोई जुर्म कर दिया हो।
एक तरफ गोद के लिए तरसती माएं, जिनकी कोख औलाद के लिए तड़पती रहती है, तो दूसरी तरफ वो मासूम, जिनकी माँओं ने या तो गरीबी से हारकर उन्हें छोड़ दिया या तक़दीर ने उन्हें बेसहारा कर दिया।
एक तरफ बच्चे न होने का दर्द, दूसरी तरफ मासूम बच्चों का भूख से बिलखना – दोनों ही जख्म इंसानियत के जिस्म पर गहरे घाव की तरह हैं, जिन पर शायद ही कोई मरहम लगाए।
मगर इन भूख से बिलखते बच्चों का दर्द न किसी नेता को दिखाई देता है, न सरकार को। ये मासूम बच्चे न तो चुनावी मुद्दा बनते हैं, न ही किसी की नेतागिरी का वोट बैंक। इनके आँसुओं से न तो किसी का प्रचार चमकता है और न ही किसी पार्टी का घोषणा-पत्र रंगीन होता है।
"गरीब बच्चों की भूख न आरक्षण का हिस्सा बनती है, न किसी मेनिफेस्टो में जगह पाती है।"
ये बच्चे बस सड़क किनारे बेबस खड़े रहते हैं, इस उम्मीद में कि शायद कोई रुककर उनके हिस्से का इंसाफ दे दे। मगर सत्ता के गलियारों में दौड़ने वाले लोग इन्हें सिर्फ नजरअंदाज कर आगे बढ़ जाते हैं।
क्या यह दृश्य देख नवाबों की रूह न तड़पती होगी?
जिन नवाबों ने हुसैनाबाद ट्रस्ट गरीबों, बेसहारों और बेघरों की मदद के लिए वक्फ किया था, आज उसी की जमीन पर ये बच्चे भूख से बिलखते हैं। फूड कोर्ट के इर्द-गिर्द नफासत से सजे आलीशान कैफे और चमचमाती रौनकें नवाबों की रूह को खून के आँसू रुला रही होंगी।
"वो नवाब जिन्होंने गरीबों के लिए जमीनें वक्फ की थीं, आज उन्हीं जमीनों पर फटे कपड़ों में लिपटे बच्चे भूख से तड़प रहे हैं।"
कभी जो हुसैनाबाद, गरीबों के लिए पनाहगाह था, आज वहाँ उनकी रोटी का भी ठिकाना नहीं।
फूड कोर्ट में खाना खाते हुए लोगों के लिए यह बस एक दृश्य है, लेकिन उन बच्चों की आँखों में बसी भूख उनके लिए रोज़ का सच है। कोई उन्हें देख भी ले, तो एक सिक्का उनकी हथेली में डालकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेता है, मगर उनकी भूख, उनकी शिक्षा, उनके सपनों का क्या?
शिक्षा उनके लिए किसी अधूरे सपने की तरह है। किताबें उनके लिए उतनी ही दूर हैं, जितना अमीरों के लिए गरीबी का एहसास। उनके नंगे पाँव, फटी एड़ियाँ और कांपते हाथ स्कूल के गेट से कोसों दूर हैं। उनकी दुनिया बस इतनी है –
"आज का खाना मिल गया, तो कल की भूख का इंतज़ार करेंगे..."
हम रोज़ अखबारों में भूकंप, बाढ़ और हादसों की खबरें पढ़ते हैं। हम दुख ज़ाहिर करते हैं, अफसोस जताते हैं, लेकिन कभी उस भूकंप का दर्द नहीं महसूस कर पाते, जो इन मासूम बच्चों के पेट में रोज़ मचलता है।
हम सूनी गोद की कराह सुनकर कुछ पल को तड़प तो उठते हैं, मगर उसकी तन्हाई की लंबी रातों का एहसास कभी नहीं कर पाते।
काश! हमें इन बच्चों की तड़प का, उन सूनी गोदों की खामोशी का एहसास होता। काश, हम समझ पाते कि गरीब बच्चों की आँखों में भी वही सपने पलते हैं, जो अमीरों की संतानें देखते हैं। बस फर्क इतना है –
एक की किस्मत में स्कूल की रंगीन किताबें होती हैं, तो दूसरे की किस्मत में बची हुई रोटियाँ।
यह हुसैनाबाद का मंजर सिर्फ दो अलग-अलग तबकों की तस्वीर नहीं है, यह हमारे समाज के चेहरे पर पड़ा वह नकाब है, जो सच्चाई को छिपा देता है।
"क्या हम कभी उस दिन के बारे में सोचेंगे, जब हमारे पास सबकुछ होगा, मगर इंसानियत नहीं?"
काश, हम उस दिन के आने से पहले जाग जाएं। काश, हम भूख से बिलखते हाथों को झिड़कने के बजाय उन्हें थाम लें।
क्योंकि जब इंसानियत ही भूख से तड़पने लगे, तो दौलत का होना या न होना, दोनों ही बेमानी हो जाता है।
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