मोहम्मद नवाब भाई – एक शाइस्ता कलमकार, एक सच्चे दोस्त, और वक्फ की हिफाज़त में एक बेबाक आवाज़

SRM Voice
0


कभी-कभी ज़िंदगी में कुछ ऐसे लोग मिल जाते हैं जो सिर्फ़ दोस्त नहीं होते, बल्कि दिल का हिस्सा बन जाते हैं। मोहम्मद नवाब भाई उन्हीं में से एक हैं—एक ऐसे सीनियर सहाफी, जिनकी रूह में इल्म, तहज़ीब और एहसास की रवानी है।

हमारे रिश्ते की बुनियाद सिर्फ़ दोस्ती नहीं, बल्कि कद्रदानी, मोहब्बत और फिक्र पर खड़ी है। वो सिर्फ़ एक अच्छा लिखने वाले नहीं, बल्कि हर अल्फ़ाज़ को जज़्बात का लिबास पहनाने वाले एक फ़नकार है। उनसे हमने सीखा कि बात कैसे कही जाए, और कैसे लिखी जाए कि असर छोड़ जाए।

मोहब्बत और तवज्जोह की मिसाल तब बनी जब मेरी तबियत खराब हुई जब लोग सिर्फ़ पूछ कर रह जाते हैं, नवाब भाई खुद अपनी बिगड़ी तबियत के बावजूद मेरे गरीब खाने पर आए। गले लग गए,उनके आने से दिल को जो सुकून मिला, वो शायद किसी दवा से नहीं मिल सकता था। उनका हाथ मेरे कांधे पर था, और आंखों में फिक्र की चमक। लगा जैसे किसी अपने ने हौसला बनकर दस्तक दी हो।

उनकी सहाफत का एक अलग ही रंग है। अज़ाएम के बाद उनकी कलम अब सहाफत में चलती है, तो हर लफ्ज़ जैसे एक आईना बनकर सामने आता है—सच्चाई, शाइस्तगी और फिक्र से भरा हुआ। वो स्याही नहीं बहाते, बल्कि एहसास बहाते हैं। उनके लिखे हर मजमून में एक वफ़ा, एक जिम्मेदारी और एक गहराई होती है।

मगर नवाब भाई सिर्फ़ कलम के सिपाही नहीं हैं, वो समाज के एक जिम्मेदार सिपाही भी हैं। वक्फ करबला सिविल लाइंस बाराबंकी कमेटी में वो एक सक्रिय सदस्य और मार्गदर्शक की हैसियत से शामिल रहे। जब भी वक्फ की ज़मीनों और हक़ों पर खतरा मंडराया, नवाब भाई ने बिना हिचक, बिना किसी डर के खुलकर आवाज़ बुलंद की। उनके अनुभव, सलाह और मौजूदगी ने ना सिर्फ कमेटी को मज़बूत किया, बल्कि नौजवानों को भी सिखाया कि हक़ के लिए खामोश रहना गुनाह होता है।

उनकी आवाज़ में सिर्फ़ अल्फ़ाज़ नहीं, बल्कि इंसाफ की गूंज होती है। वो हर उस जुल्म के खिलाफ हैं जो मज़लूम पर किया जाए, चाहे वो किसी भी शक्ल में हो।

मोहम्मद नवाब भाई जैसे लोग कम मिलते हैं—जो अपने पेशे से वफ़ादार भी हों, अपने दोस्तों के लिए दुआ और दवा भी हों, और अपने मज़हबी और समाजी विरसे की हिफाज़त के लिए बिला झिझक मैदान में खड़े हो जाएं।

आज जब ये अल्फ़ाज़ मैं लिख रहा हूँ, तो मेरी आंखों में उन लम्हों की नमी है जब वो बीमार होने के बावजूद मेरे लिए चलकर आए। ये एहसान नहीं था, ये उनका अंदाज़-ए-वफ़ा था।

Post a Comment

0Comments

Post a Comment (0)