काश! ऐसा होता कि यूनिवर्सिटी पर बुलडोज़र चलवाने वाले पहले हर तरह का नशा छोड़ते। यह नशा शराब या तंबाकू का नहीं, बल्कि सत्ता का नशा है, गुरुर का नशा है और दबंगई का नशा है। यही नशा उन्हें शिक्षा की इमारतों को गिराने का हौसला देता है।
गोंडा और आसपास के जिलों में सैकड़ों स्कूल आज भी “नकल कापी लिखवाने का अभियान” चला रहे हैं। वहाँ बच्चे किताबें नहीं, तैयार उत्तर खरीदते हैं। पूरे समाज को मालूम है कि यह कारोबार शिक्षा की जड़ों को खोखला कर रहा है। मगर वहाँ बुलडोज़र की याद किसी को नहीं आती। न एबीवीपी आंदोलन करती है, न प्रशासन को चिंता होती है। क्योंकि नकल के इस महाउद्योग से किसी सियासत का नुकसान नहीं होता।
लेकिन जब बात आई बाराबंकी की राम स्वरूप यूनिवर्सिटी की, तो अचानक बुलडोज़र गरज उठा। यह वही यूनिवर्सिटी है जिसने सरकारी स्कूलों और यूनिवर्सिटियों की बदहाली के बीच अपने दम पर लाखों इंजीनियर, वैज्ञानिक और मैनेजर तैयार किए। यह वही शिक्षा का मंदिर है जहाँ से देश की सेवा में लगे हजारों युवा निकल चुके हैं।
और विडंबना देखिए—इसी यूनिवर्सिटी को साज़िश का निशाना बनाया गया। एफआईआर और बुलडोज़र की कार्रवाई के बीच 11,000 छात्रों का भविष्य अधर में लटक गया। सवाल यह है कि क्या यह सचमुच प्रशासनिक कदम था या फिर एक सोची-समझी चाल, जिससे सरकार और समाज दोनों को गलत संदेश जाए?
यह सिर्फ एक यूनिवर्सिटी पर हमला नहीं, बल्कि राम के नाम का अपमान है। जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काटने का खेल है। शिक्षा ही वह शक्ति है जो समाज को संवार सकती है। मगर जब शिक्षा ही सियासी साज़िश की शिकार बनने लगे तो आने वाली पीढ़ियों का क्या होगा?
व्यंग्य यही है कि जिन संस्थाओं को शिक्षा सुधार का एजेंडा लेकर चलना चाहिए था, वे अब सत्ता सुधार का एजेंडा लेकर आए हैं। बुलडोज़र चलाना ही है तो क्यों न उसे नकलखोर स्कूलों, माफियाओं और नशे के अड्डों पर चलाया जाए? क्यों हमेशा शिक्षा के मंदिर को ही रौंदा जाता है?
उत्तर प्रदेश की असली तस्वीर यह है कि सरकारी स्कूलों और यूनिवर्सिटियों का बुरा हाल है, मगर जो संस्थान अपने दम पर देश को योग्य नागरिक दे रहे हैं, उन्हें अपमानित किया जा रहा है।
काश! कक्षाओं में तालियों की गूँज सुनाई देती, बुलडोज़रों की गड़गड़ाहट नहीं। काश! छात्रों की मेहनत का सम्मान होता, सियासी खेल नहीं। और काश! यह मुल्क समझ पाता कि असली तरक्की चुनावी नारों से नहीं, बल्कि चॉक और कलम से होती है।
और आखिर में यही सवाल—
“अगर बुलडोज़र ही चलाना है, तो चलाओ नकल पर, नशे पर और माफियाओं पर…
शिक्षा के मंदिर पर नहीं!”