मक्खनबाज़ी, चापलूसी और मक्कारी के बिना क्या सच में जीना मुमकिन है ?

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आज का दौर अजीब है। यहाँ सच्चाई, मेहनत और ईमानदारी की कीमत बहुत कम और मक्खनबाज़ी, चापलूसी व मक्कारी की कीमत आसमान छू रही है। आपने सही कहा कि अगर ये तीन "कला" आपको नहीं आतीं तो मानो आप जैसे सादे और सच्चे लोग इस दुनिया में जीने का हक ही खो बैठते हैं।

1. समाज में "मक्खनबाज़ों" का बोलबाला

काबिलियत और हुनर रखने के बावजूद कई लोग आगे नहीं बढ़ पाते, क्योंकि उन्हें "हाँ जी" और "ना जी" कहने की आदत नहीं होती। वहीं, जिनके पास कोई योग्यता नहीं होती, वो सिर्फ अपने झूठे गुणगान और बनावटी अदब से बड़े-बड़े ओहदे हासिल कर लेते हैं। यही वजह है कि सच्चा आदमी अक्सर पीछे छूट जाता है।

2. चापलूसी बनाम ईमानदारी

ईमानदार इंसान सीधा रास्ता अपनाता है, लेकिन चापलूस हर मोड़ पर रास्ता बदलना जानता है।

ईमानदार को सम्मान तो मिल सकता है, लेकिन देर से और सीमित दायरे में।

चापलूस को फायदा तुरंत और हर जगह मिलता है, चाहे उसकी नीयत कितनी भी गंदी क्यों न हो।

3. मक्कारी का इनाम

मक्कारी यानी दूसरों को नीचा दिखाकर खुद को ऊँचा बनाना। अफसोस की बात यह है कि ऐसे लोग समाज में "सफल" कहे जाते हैं। उनकी असलियत बहुत देर से सामने आती है और तब तक वे बड़े नाम, शोहरत और दौलत के मालिक बन चुके होते हैं।

4. सच्चे लोगों की बेबसी

सच्चे लोग जब ये देखते हैं कि उनकी मेहनत, त्याग और ईमानदारी की कोई कदर नहीं, तो उनके मन में यही सवाल उठता है – “क्या इस समाज में जीने का हक सिर्फ चापलूसों और मक्कारों को है?”

5. बदलाव की ज़रूरत

अगर समाज ऐसे ही चलता रहा तो आने वाली पीढ़ियाँ सच्चाई और ईमानदारी को "कमज़ोरी" मान लेंगी। हमें यह मानना होगा कि:

सच्चाई और ईमानदारी ही असली ताकत है।

मक्खनबाज़ी और मक्कारी से हासिल की गई शोहरत टिकाऊ नहीं होती।

समाज को सही दिशा देने के लिए हमें चापलूसों को बढ़ावा देना बंद करना होगा।

दुनिया आज भले ही मक्खनबाज़ों और मक्कारों की हो गई हो, लेकिन सच्चाई और ईमानदारी की रौशनी कभी खत्म नहीं होती। इतिहास गवाह है कि मक्खनबाज़ और चापलूस वक्ती तौर पर सफल जरूर हुए, लेकिन नाम उन सच्चे और ईमानदार लोगों का ही जिंदा रहा जिन्होंने सच का रास्ता चुना।

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